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विकास वर्मा
हिंदी भाषा किसी न किसी
रूप में पिछले हज़ार वर्षों से स्वतंत्र सत्ता में आने लगी थी, परन्तु पिछले 150-200 वर्षों
में, जो कि एक अखंड भारत के निर्माण का समय रहा है, हिंदी का अभूतपूर्व विकास हुआ
है और इसने देश की एकता को वह सामर्थ्य दिया है कि आज हम एक स्वतंत्र और संप्रभु
राष्ट्र हैं| स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में एक अखंड भारत के स्वप्न के मार्ग में
जो बाधाएं हमरे राष्ट्रनायकों को दिखाई दीं, उनमे अन्य बहुत सी बातों के साथ-साथ
एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बात थी- एक सर्वमान्य राष्ट्रीय भाषा का अभाव| ऐसे में हमारे
नायकों को हिंदी में राष्ट्रीय विचारों की संवाहक की संभावना दिखी और हिंदी ने न
केवल इस काम को बखूबी निभाया बल्कि आशा से कहीं अधिक सफल रही|...
एक
समर्थ भाषा के रूप में तो हिंदी अमीर खुसरो के समय से ही जनमानस में रचने-बसने लगी
थी, किन्तु हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार किये जाने का स्वर पहली बार 19वीं
शताब्दी के मध्य में प्रसिद्ध गुजराती विद्वान एवं कवि श्री नर्मद ने उठाया था|
फिर वह समय भी आया कि एक लम्बी दासता के बाद देश चैतन्य हुआ, आन्दोलनों की बाढ़ आ
गयी और साथ ही हिंदी का विस्तार राष्ट्रीय रूप लेने लगा| आन्दोलन चाहे राजनीतिक
हो, सामाजिक हो या धार्मिक हो; सभी को हिंदी का सहारा लेना पड़ा| संस्कृत के प्रकांड विद्वान महर्षि दयानंद
सरस्वती ने केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर संस्कृत के बजाय हिंदी का प्रयोग करना
प्रारंभ किया और फिर हिंदी की सम्प्रेषण क्षमता देखते हुए ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की
रचना भी हिंदी में ही की और वेदों का भाष्य संस्कृत के साथ-साथ हिंदी में भी लिखा|
स्वामी विवेकानन्द ने
अधिकतर भाषण एवं लेखन विदेशों में किया, जो कि अंग्रेजी में था; लेकिन उन विचारों
को भारत में प्रसारित करने के लिए हिंदी में अनूदित किया गया और विवेकानन्द
साहित्य के हिंदी प्रकाशन को लोगों ने हाथों-हाथ लिया|
महात्मा गाँधी तो हिंदी
की सरलता पर ऐसे मुग्ध हुए कि उन्होंने न केवल हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाये जाने
की वकालत की वरन दक्षिण भारतीय राज्यों में, जहाँ कि हिंदी का विरोध प्रबल था,
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार समिति का गठन किया|
कथासम्राट प्रेमचंद को
ही लें, पहले-पहल उर्दू में लिखना शुरू किया और कई साल तक उर्दू में ही लिखा,
लेकिन जब उनका अनुभव व्यापक हुआ, उनकी कहानियां और उपन्यास यथार्थवादी हुए, उनका
पात्र आम जनता हुई, उनका दर्शन राष्ट्रीय हुआ; उन्हें हिंदी की आवश्यकता मालूम हुई
और फिर जीवनपर्यंत हिंदी में ही लिखते रहे|
आजादी के बाद हिंदी को
आधिकारिक रूप से राजभाषा का दर्जा मिला अवश्य, किन्तु उसे वह सम्मान न मिला जिसकी
वह अधिकारिणी थी| अब इसे चाहे देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी कहें या
‘प्योरिस्ट्स’ का हिंदी को शोकेस की भाषा बना कर रखने का पूर्वाग्रह; लेकिन सरकारी
काम-काज में हिंदी की वह प्रगति न हुई जो स्वतंत्र भारत में अपेक्षित थी| किन्तु इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती
कि सामान्य जनता में हिंदी का व्यापक प्रसार हुआ है और आज देश के प्रत्येक भाग में
एक बड़ी संख्या में लोग हिंदी बोलते और समझते हैं; भिन्न भाषा-भाषी लोग परस्पर
हिंदी का प्रयोग करते है| हिंदी जबानों पर आ चुकी है, मौखिक रूप से वह निश्चित ही
भारत को एकता के सूत्र में बांधने का कर्तव्य पूरी तरह से निभा रही है; बस उसे
कागजों पर उतरना बाकी है|
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