भूमंडलीकरण व उदारीकरण के इस दौर में
पूंजीवाद सर्वाधिक ताकतवर होकर उभरा है। इस दुनिया के महत्त्वपूर्ण संसाधनों पर
कुछ मुट्ठी भर लोगों का कब्जा और वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है। उदारीकरण में यदि यह तथ्य पूंजी के लिए उचित है
कि बड़ा लगातार बड़ा होता जा रहा है और छोटा या तो छोटा बने रहने के लिए अभिशप्त है
या समर्पण करने के लिए बाध्य है तो यह स्थिति भाषाओं के लिए भी यथावत लागू होती
है। पूंजीवाद ने भाषाओं को बहुत अधिक प्रभावित किया है। बड़ी भाषाओं के बढ़ते प्रभाव
से छोटी भाषाएं अत्यधिक संकट में आ गयी हैं।
विश्व में लगभग 6000-7000 भाषाएं बोली
जाती हैं। एक सर्वे से पता चला कि विश्व की शीर्ष 25 भाषाओं को विश्व के आधे से
अधिक लोग बोलते हैं। शेष आधे लोग शेष भाषाओं को बोलने वाले हैं। इनकी संख्या में
भी लगातार कमी आती जा रही है । इस वजह से
बहुत सारी भाषाएं संकटग्रस्त और लुप्तप्राय श्रेणी में आ गयी हैं। बहुत सी भाषाएं
मर चुकी हैं और बहुत से मरने की कगार पर खड़ी हैं। विविधता से भरी पूरी दुनिया में
बहुभाषिकता की स्थिति में लगातार कमी आती जा रही है। भारत पूरी दुनिया में इससे
सर्वाधिक प्रभावित है। भारत पूरी दुनिया में अपनी विविधता के लिए जाना जाता है। यह
विविधता भाषा व संस्कृति के क्षेत्र
में सर्वाधिक है। भारत की भाषाएं देश की धरोहर और विरासत हैं। भाषाओं के लुप्त
होने से देश की भाषा रूपी अमूल्य धरोहर और पूर्वजों की विरासत पर गंभीर संकट आ गया
है। 21वीं सदी में भाषाओं के मरने की रफ्तार बहुत तेजी से बढ़ी है।
इस संबंध में भाषिक जगत में इन दिनों ‘सारे’ नामक भाषा की चर्चा गरम है। पिछले
वर्ष अप्रैल माह में अंडमान के दक्षिणी द्वीप में बोली जाने वाली सारे नामक
यह भाषा अपनी अंतिम बोलने वाली महिला लीचो की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गयी।
ग्रेट अंडमानी जनजाति की यह महिला विभिन्न गंभीर बीमारियों की वजह से मरी। अपने
अंतिम दिनों में अपनी पीड़ा के साथ-साथ यह महिला अपनी भाषा के अपने साथ लुप्त हो
जाने की पीड़ा से भी बहुत दु:खी रहती थी। इसका कारण यह था कि उसके समुदाय के लोगों
ने अब अपनी मातृभाषा को छोड़कर अन्य दूसरी भाषाओं को अपना लिया था।
लीचो की मृत्यु के साथ उसकी भाषा ‘सारे’ की मृत्यु की घटना कोई पहली घटना नहीं है। इससे
पहले वर्ष 2010 में बो भाषा की मृत्यु उसकी अंतिम भाषाभाषी बोआ की मृत्यु
के साथ हो चुकी है। वर्ष 2010 में अंडमान से खोरा भाषा भी लुप्त हो चुकी है। अभी
वहाँ पर एक जनजाति भाषा ‘जेरू’ को बोलने वाले केवल तीन ही लोग बचे हुए हैं।
इसके अलावा विश्व में ऐसी अनेक घटनाएं पूर्व में भी हो चुकी हैं।
‘एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डैंजर’ की एक रिपोर्ट के
मुताबिक वर्ष 1950 से इस विश्व में 230 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। वर्ष 2001 में
इस एटलस का पहला संस्करण जारी किया गया था। उस समय लगभग 900 भाषाओं को विलुप्त
होने के खतरे की श्रेणी में रखा गया था। वर्ष 2017 में छपे इसके एक संस्करण के
अनुसार इस श्रेणी में अब भाषाओं की संख्या बढ़कर 2464 हो गयी है। दुनिया के 151 देशों की भाषाएं संकट के इस दौर
से गुजर रही हैं। इन आंकड़ों से समस्या की गंभीरता का पता चलता है।
यूनेस्को
ने भारत की 197 भाषाएं, संयुक्त राज्य अमेरिका की 191 भाषाएं, ब्राजील की 190 भाषाएं, चीन की 144 भाषाएं, इंडोनेशिया की 143
भाषाएं, मेक्सिको की 143 भाषाएं, रूस की 131 भाषाएं, आस्ट्रेलिया की 108
भाषाएं संकटग्रस्त सूची में चिह्नित किया है। इन आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो
पता चलता है कि भाषाओं के लुप्त होने की रफ्तार निकट भविष्य में बहुत तेज होने
वाली है। यूनेस्को का आकलन है कि यदि भाषाओं के लुप्त होने की यही रफ्तार रही तो
इस शताब्दी के अंत तक दुनिया भर से 50 से 90 प्रतिशत भाषाएं लुप्त हो जाएंगी।
युनेस्को
के अनुसार दुनिया भर में भारतीय भाषाओं पर संकट सबसे अधिक है। यूनेस्को की सूची के
अनुसार अहोम, आंद्रो, रांगकास, सेंगमई और तोल्चा भारतीय भाषाएं अब तक मर चुकी
है। भाषाओं की मृत्यु पहले भी होती थी लेकिन 21वीं सदी जैसी भाषाओं की व्यापक विलुप्ति
पहले कभी नहीं देखी गयी। पीपुल्स लिंग्विस्टिक्स सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा देश में
विभिन्न राज्यों में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएं
मृत हो चुकी हैं। भारत में जन जातीय समुदाय, घुमंतू समुदाय और तटवर्ती समुदाय के लोगों की
भाषाओं पर सर्वाधिक संकट है।
भाषाओं
पर काम करने वाले एक अंतरराष्ट्रीय संगठन एथनेलॉग ने भी अपने सर्वेक्षण में विश्व
की 7139 भाषाओं में से 42 प्रतिशत यानी 3018 भाषाओं को संकटग्रस्त की श्रेणी में
डाला है। ये भाषाएं विलुप्ति के विभिन्न
चरणों में हैं। एथनेलॉग द्वारा बताया गया कि विश्व की आधी आबादी केवल 24 भाषाएं
बोलती हैं। इनमें विश्व की सभी अग्रणी भाषाएं सम्मिलित हैं। एथनेलॉग के ही एक
अध्ययन के मुताबिक विश्व की आधी आबादी लगभग 7000 भाषाएं बोलती हैं और विश्व की आधी
भाषाओं को 10 हजार से कम बोलने वाले लोग बचे हैं। इसी विश्लेषण में आगे बताया गया
कि विश्व की केवल एक प्रतिशत आबादी लगभग 5000 भाषाएं बोलती है। यह जानकर और भी
ताज्जुब होगा कि विश्व की 0.1 प्रतिशत लोगों की ही वजह से 3,500 भाषाएं
आज जिंदा हैं। 0.1 प्रतिशत का मतलब केवल 80 लाख लोग होते हैं। इन आंकड़ों पर गौर
करने के बाद यह संकट और भयावह लगने लगता है।
भाषाओं
के संकटग्रस्त श्रेणी में चले जाने के अनेक कारण हैं। कई बार यह विस्थापन की वजह
से होता है, कई बार नई पीढ़ी के द्वारा मातृभाषा को स्वीकार न करने के
कारण, कई
बार यह रोजगार के अवसरों की अपनी भाषा के माध्यम से कमी, कई बार मातृभाषा में
शिक्षा की समुचित व्यवस्था न होने से, कई बार बड़े भाषा भाषी वर्ग के लोगों के प्रभाव
में अल्पसंख्यक भाषाओं के आ जाने से होता है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की इसमें
सबसे बड़ी भूमिका है।
युनेस्को
की रिपोर्ट के आधार पर भारत में जो 197 भाषाएं लुप्तप्राय पायी गयी हैं उनमें से
81 असुरक्षित या अति संवेदनशील, 63 निश्चित रूप से लुप्त, 6 गंभीर
रूप से लुप्त, 42 संकटग्रस्त और 5 पूर्णतः विलुप्त हो चुकी भाषाएं हैं। अंडमान और निकोबार इस सूची
में प्रथम स्थान पर हैं जहाँ 11 भाषाएं गंभीर रूप से लुप्त हो रही भाषाओं की
श्रेणी में आती हैं।
पश्चिम
बंगाल में बोली जाने वाली एक भाषा टोटो है, जो कि संकटग्रस्त की श्रेणी में आ गयी है। इस
भाषा के बोलने वाले सीधे कहते हैं कि हमारी जनजाति बंगाली, नेपाली के अलावा हिंदी
के बढ़ते प्रभाव से संकटग्रस्त हो गयी है।
इनकी नयी पीढ़ी इस भाषा को नहीं अपना रही है। कई बार लिपि के नहीं होने से भी भाषा
संकटग्रस्त श्रेणी में आ जाती है। भाषा की जब तक लिपि नहीं होगी, इसे डिजिटल माध्यम से
पूरी तरह से संरक्षित कर पाना संभव नहीं हो पाता है।
कई
बार जलवायु परिवर्तन होने से या घुमंतू जातियों के विस्थापन से उनकी अपनी भाषाओं
पर संकट आ जाता है। क्वींस विश्वविद्यालय के एनेसतासिया रीहल अपनी एक रिपोर्ट में
लिखते हैं कि इंडोनेशिया के सुलावेशी द्वीप में दर्जनों भाषाएं अस्तित्त्व में
हैं। वर्ष 2004 में आयी सुनामी की वजह से यहां से लोगों को बेदखल होना पड़ा और इसका
असर उनकी अपनी भाषाओं पर पड़ा।
मातृभाषा
में यदि शिक्षा की व्यवस्था न हो तो फिर अगली पीढ़ी में मातृभाषा के स्थानांतरण में
बड़ी समस्या आती है। मातृभाषा में शिक्षा की समुचित व्यवस्था होने से इनका संरक्षण
बहुत आसानी से किया जा सकता है। बहुत बार बहुत से परिवार रोजगार की तलाश में अपना
मूल स्थान छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं और उन्हें नये परिवेश की जरूरतों के अनुसार
नयी भाषाओं को सीखना पड़ता है। ऐसे में 2-3 पीढ़ी के बाद उनकी मूल मातृभाषा को
स्थानांतरित कर पाना संभव नहीं हो पाता है। भारत से बाहर गए परिवारों में यह
समस्या बहुत आम है।
कई
बार कुछ प्रमुख भाषाएं रोजगार प्राप्ति का साधन बन जाती हैं। इन्हें सीखना मजबूरी
बन जाता है। ऐसे में उन परिवारों में दूसरी या तीसरी पीढ़ी में अपनी मातृभाषा को
सिखा पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसे
परिवारों में उनकी मातृभाषा का धीरे-धीरे क्षरण होता जाता है।
धीरे-धीरे भाषा ऐसी स्थिति में पहुंच जाती है, जहाँ से यह नयी पीढ़ी में स्थानांतरित होना बंद
हो जाती है।
दुनिया
भर में संकटग्रस्त भाषाओं के अध्ययन से साफ स्पष्ट होता है कि देशज भाषाओं पर खतरा
सर्वाधिक है। यही भाषाएं विलुप्त होने की कगार पर हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत
की लगभग 30 प्रतिशत देशज भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। इसे निम्नलिखित नक्शे से
समझा जा सकता है-
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संकटग्रस्त भारतीय भाषाएं |
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर एवं भारतीय भाषा मंच
के संयोजक डॉ. वृषभ प्रसाद जैन भारतीय भाषाओं पर खतरे के बारे में कहते हैं कि
भारत के भीतर और बाहर सर्वत्र भारतीय भाषाएं अपने अस्तित्व के खतरे से भी जूझ रही
हैं, कुछ
जल्दी नष्ट होने की कगार पर हैं, कुछ थोड़े काल के बाद। पूर्वोत्तर में और पहाड़ों पर
यह स्थिति बड़ी साफ दिख रही है और भारत के बाहर भारतवंशियों की पाँचवीं-छठी पीढ़ी के
बाद उनकी भाषा व्यवहार में नहीं रह जाएगी। सभी संदर्भों को लेकर इसके लिए रणनीति
बनाए जाने की आवश्यकता है। तभी भारत बचेगा और भारतीयता भी।
देशज
भाषाओं के संरक्षण बहुत लाभ हैं। इन भाषाओं में हमारे पूर्वजों द्वारा इन भाषाओं
में विकसित ज्ञान को संजोया गया है। यह ज्ञान चिकित्सा विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, मौसम विज्ञान, कृषि विज्ञान, जीवन दर्शन, अध्यात्म, सामाजिक मान्यताओं आदि
रूप में होता है। यदि हमारी भाषाएं लुप्त होंगी तो इनमें संचित ज्ञान को बचा पाना
संभव नहीं होगा और यह भी लुप्त हो जाएगा। यह ज्ञान मनुष्य को प्रकृति के साथ
संघर्ष करने और अपना अस्तित्व बचाकर मनुष्य को श्रेष्ठतम के रूप में स्थापित करने
की शक्ति देता है। यही कारण है कि विश्व में जितनी भाषाएं हैं, हमें इस दुनिया को
समझने के उतने माध्यम हमारे पास हैं। उदाहरण के लिए मलेशिया की स्थानीय भाषा में
धन्यवाद शब्द को 16 अलग-अलग प्रकार से अलग-अलग अवसरों पर बोला जाता है। खासी भाषा के शोधकर्ता इम्तियाज हुसैन बताते
हैं कि पूर्वोत्तर भारत की भाषा खासी में भोजन को बाम कहा जाता है और इसे
20 विभिन्न प्रकार से बोला जाता है। इसी भाषा में बोलने को क्रिन कहा जाता
है और 38 विभिन्न प्रकार से व्यक्त किया जाता है। जन जातीय भाषाएं विविधता का गढ़
हैं।
इस संबंध में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की
प्रोफेसर अन्विता अब्बी कहती हैं कि भाषा के मरने से बहुभाषिता ही नहीं मरती बल्कि
पूरा समाज मर जाता है, समाज की संस्कृति मरती है,
भाषा से जुड़े लोगों की सोच, हजारों वर्षों से
संजोया ज्ञान, उनका दर्शन और मान्यताएं, उनका विश्वास और सबसे अहम पर्यावरण को समझने और बचाने का ज्ञान और सूझबूझ
हमेशा के खत्म हो जाती है। इस नुकसान की भरपाई दूसरी भाषा नहीं कर सकती, चाहे वह हिंदी हो या अंग्रेजी। अन्विता अब्बी ओडिशा के कोरापुट का उदाहरण
देते हुए समझातीं हैं कि हरित क्रांति से पहले यहां 1,700 किस्म
के चावल उगाए जाते थे। दो या तीन किस्मों को छोड़कर चावल की लगभग सभी किस्में
लुप्त हो गईं हैं। इसके साथ ही उनसे जुड़े लोक साहित्य का भी लोप हो गया। वे तमाम
शब्द भी खो गए जो चावल के साथ जुड़े थे। इन चावलों का स्वाद बताने वाले शब्द और
अनुभूतियां भी गायब हो गईं। वह साफ तौर पर मानती हैं कि भाषा के लोप के साथ समझने
की शक्ति भी खत्म हो जाती है।
ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं।
देशज भाषाओं की तमाम कहावतें जीवन दर्शन को समझने की दृष्टि देती हैं। कहावतें
हमारे पूर्वजों के अनुभव हैं, जो उन्होने जिया है। यही वजह है
कि देशज भाषाओं को भुला देने से हम अनजाने में बहुत से सहज ज्ञान से हाथ धो बैठते
हैं और अपने अस्तित्व की चुनौती से जूझने की क्षमता का भी पतन हो जाता है। यही वजह
है कि दुनिया भर के भाषा वैज्ञानिकों ने एकमत से मातृभाषा में शिक्षा के लिए वकालत
की है। भारत के संविधान में भी भाषायी अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी विशेष प्रावधान
किए गए हैं।
आज विडंबना यह है कि भाषाओं की
मौत के जो कारण हैं चाहे वह उदारीकरण हो, भूमंडलीकरण हो या इंटरनेट,
किसी का हम विरोध नहीं कर सकते हैं। आज इसके कोई विकल्प हमारे पास
उपलब्ध नहीं हैं। इन सबने देश-दुनिया को एक नया नजरिया दिया है। इन्हीं के बीच में
रहते हुए हमें भाषा संरक्षण के तरीकों को अपनाना होगा और हम सबको स्वयं अपनी भाषा
का पहरेदार बनना होगा। जो डिजिटल मीडिया देशज भाषाओं को निगल रही है, उसी को इस लड़ाई में सबसे बड़ा हथियार बनाना होगा।
सचिव
नगर
राजभाषा कार्यान्वयन समिति धनबाद
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